॥ अथ जय माल वर्णन॥
जारी........
देंय सुरमुनि शापो अशिषाय। बँधायो कार्य हेतु हर भाय। ।
मनै मन पवन तनय हर्षाय। जाँय लै दशमुख के ढिग भाय॥
धरैं अंजनि सुत को तहँ जाय। कहैरावन हनुमान से भाय॥
बृक्ष क्यों तूरे फलन को खाय। पकरि फिरि अक्ष कुमार उठाय॥
मही पर पटके अति रिसिआय। निशाचर मारे तहँ बहु धाय।८२०।
किये यह कौन काम तू आय। जान से मारे मम पुत्राय॥
शोक की उठत कलेजे हाय। कहैं हनुमान सुनो चित लाय॥
भला कहुँ निज स्वभाव मिटि जाय। भूख बस फल हम लीन्हें खाय॥
बृक्ष गे कूदत चढ़त ढहाय। बड़े कमज़ोर रहे बिट पाय॥
सह्यौ नहिं तनकौ भार को भाय। हमारे यहाँ के जो बृक्षाय।८३०।
घूमि हम आवैं उऩ पर भाय। न टूटैं कबहूँ हैं वैसाय॥
भई नहि भेंट ऐस बिट पाय।अहैं हम जंगल बासी भाय॥
रहैं बृक्षन ही पर सुख पाय। निशाचर मारेन तब हम भाय॥
लियो उन पहले दाँव चलाय। सुनो कहूँ ऐसा होत है भाय॥
चोर क करी क कटारी खाय। पेट ही भरेन न बाँधेन भाय।८४०।
डाटते हो हम को गुर्राय। पढ़ेव तुम चारिउ वेद को भाय॥
किहेव टीका सुर मुनि मन भाय। नीति को तन मन से बिसराय॥
दिहेव तुम रावण मद में आय। हरेयौ माता को बन में जाय॥
भेष साधू का धरि के भाय। कपट का कार बुरा है भाय॥
मृत्यु तुमरी अब गइ नगचाय। सामने हरतिउ जो कहुँ आय।८५०।
परत तब तुमको मालुम भाय। बनत हौ बीर चोर हौ भाय॥
शरम तुमको तनकौ नहिं आय। हुकुम नहिं दियो हमैं रघुराय॥
नहीं तो देखतेव मम बल भाय। मारि सब कटक निशाचर भाय॥
तुम्हैं सब देतेंव खेल देखाय। तुम्हैं औ कुम्भ करण को भाय॥
पकरि घननाद को संग मिलाय। पगन दोनो से काँड़ि के भाय।८६०।
गिलावा करतेंउ खूब बनाय। बाँधने से क्या बिगरेय्यौ भाय॥
कार्य के हेतु प्रभु बँधवाय। ब्रह्म शर तोड़ि देंय जो भाय॥
घटै महिमा हरि दीन बड़ाय। दिखाउ कछु लीला दुखदाय॥
किह्यौ तुम जौन तुम्हैं बिन आय। राम के भक्तन के दुखदाय॥
तुम्हैं नहिं कोइ सुर सकै बचाय। ठानि हरि हूँ से बैर को भाय।८७०।
रहौगे कहाँ कहौ तुम जाय। चहौ जो अपनी सुनो भलाय॥
दीन ह्वै मिलौ राम से जाय। प्रभू मम दीनानाथ कहाय॥
दीन को तुरतै लें अपनाय। कपट तजि निर्मल जो ह्वै जाय॥
पास ही बास करै सो भाय। बड़े पण्डित तुम तौ कहलाय॥
गई पाण्डित्य कहाँ वह भाय। सुनै रावण यह बचन रिसाय।८८०।
कहै यह बानर हमै सिखाय। बीरता देख लेव हम भाय॥
आइहैं लै बानर ऋक्षाय। चबैना भरे के हैं नहि भाय॥
रहै समुझाय हमै क्या आय। भला कहुँ बानर भालू जाय॥
लड़ाई कीन्ही दे बतलाय। सकै को जीति हमन सुत भाय॥
नाम जिनका घननाद कहाय। जक्त में सबको दीन हराय।८९०।
मुकबिल जंग कीन को भाय। दण्ड हम लीनेन सब से भाय॥
भया को ऐसा जग उमराय। पड़े बन्दी खानेन में आय॥
देखि तो आओ को को भाय। कहौ स्वामी तुम राम को भाय॥
हमारे स्वामी शम्भु कहाय। कृपा से उनकी हम सुखदाय॥
कमी नहि कोई बात की भाय। हमैं तो आवत बड़ी हंसाय।९००।
ऋक्ष बानर का करिहैं आय। नहीं कोइ अस्त्र सिखे हैं भाय॥
रहैं जंगल फल पाती खांय। आपके स्वामी की बुधि भाय॥
जारी........