॥ वैकुण्ठ धाम के अमृत फल ९ ॥ (विस्तृत)
१३१. सब काम का समय भगवान बांधे हैं। सब जीव हाय-हाय करते हैं। ईश्वर पर विश्वास नहीं रखते। समै (समय), स्वंासा, शरीर भगवान का है। सब अपना माने हैं, मौत और भगवान को भूले हैं। यह माया का खेल बड़ा कठिन है।
१३२. कैसे मरना पैदा होना छूटे? आंखी कान खुल जांय, उसे ज्ञान हो जाय, फिर यह जन्म, मरन छुट जाय। अन्धे मियां ने रामायण, गीता, भागवत, बाल्मीकि, गायत्री सब पर लिखाया है।
१३३. यह सब बातें छोड़कर अपने को सबसे नीचा मान लो, बस आँखी कान खुल जांय।
१३४. गती (कल्याण) तो भाव से होती है।
१३५. हम तो चन्द रोज के रहने वाले रह गये। अब सच्चा भाव कब आवेगा? नदी के किनारे, कबर के अन्दर, टिकटी के ऊपर हैं।
१३६. पका आम जहाँ पेड़ से गिरा, तो आदमी या पशु जिसे मिला, खा लेता है, वही हाल है। बड़े भाग्य से नर शरीर मिलता है। अगर परस्वारथ परमारथ कुछ न हुआ तो चौरासी के बन्धन से कभी न छूटेगा। जीव मौत और भगवान को भूला है। देखता है (लोग) रोज पैदा होते मरते हैं, गाड़े जाते, फूंके जाते, जल में प्रवाह किये जाते हैं। वह समझता नहीं है। हम नहीं मरेंगे। और (कहता है), अरे उठाओ भाई ले चलो, यह तो मृत्यु लोक है। मरना, पैदा होना, लगा ही रहता है। जहाँ मरघट से लौटे- तहां अपने अपने काम में लग गये। थोड़ी देर झूठा ज्ञान कहकर फिर अज्ञान के घोड़े पर सवार हो गये। कहाँ तक लिखें, कौन सुन कर राह पर चलेगा?
१३७. भगवान को ढोंग पसन्द नहीं, तुम जानों इष्ट जाने, तभी सफलीभूत होंगे।
१३८. बहुत पढ़ना ठीक नहीं बुद्धि पीतर (पीतल) हो जाती है।
१३९. चिन्ता छांड़ि (भगवान को) पकड़ लो। काम बन गया।
१४०. हमने घूमकर देखा। १८ की उमर में ४ बरस घूमें है। तुम सब मौत, भगवान को भूले हो। समझते हो समय, स्वांस, शरीर हमारा है। परिवार, धन, मकान, खेती हमारी है। खूब खाते-पीते हो। कोई तारीफ करे तो मस्त हो जाते हो। बुराई करे तो नाखुस होते हो। कसूर तुम्हारा है। मरते समय भगवान का नाम कान में पर जाता है, तो महा पापी भी तर जाता है। यह कर्म भूमि है, अपने अपने कर्मानुसार जीव मरते पैदा होते हंै, दुख सुख भोगते हैं। तुम जन्म के साथी हो कर्म के नहीं।
१४१. एक घड़ी कोई भगवान का नाम मन लगा कर अगर करे ते ५९ घड़ी की भगवान माफी देते हैं।
१४२. भगवान का भक्त वही होता है, जो अपने को सबसे नीचा मान ले। दीनता आ जाय, शान्ति मिल जाय। मान बड़ाई में न परे माया (सब सुकृत - तप धन) चाट लेती है।
१४३. हर एक जुग में दुखी सुखी रहते हैं। कर्म अनुसार भोगना पड़ता है। एक घड़ी भगवान में मन लग जाय तो ५९ घड़ी भगवान माफी दे देते हैं। पाप नास होते हैं। वह सच्चा दरबार है। कोई एक घड़ी मन नहीं लगाता। बेमन जपने से गैर हाजिरी में लिखा जाता है।
१४४. भगवान प्रेम के बस हैं।