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॥ श्री रामायण व गीता जी की प्रार्थना ॥

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पद:-

राम भजन को जे जन भूले।

ते सब जन्मत मरत जगत में सान मान में फूले।

हरि सुमिरन में जे हैं लागे कोइ लंगड़े कोइ लूले।

तिनका जस दोनों दिसि छायो गर्भ में फेरि न झूले।

अंधे कहैं धन्य वे भक्तौं सतगुरु के अनकूले।

ध्यान प्रकास समाधि रूप छबि नाम के रंग में घूले।६।

 

दोहा:-

अब ही तो बिजुकत फिरत बने यहाँ पर साँड़।

जमन को लखि बिछुलौ गिरौ मारैं महुरा काँड़।

कौन सहायक वहाँ पर तव हित बाँधै फाँड़।

बाँधि के तुमको लै चलैं त्रिया ह्वै गई राँड़।

कढि लावैं पटकैं गरजि ऐसे हैं वे चाँड़।

अंधे कह गेरें नरक कौन लेय वहँ आँड़।६।

पद:-

बचन मानि ले सतगुरु के चाहै कैसा पापी होवै।१।

सो तौ तरा भरा तन मन रंग मान अपमान को खोवै।२।

रंग रोवन से नाम कि धुनि हो औरन का दुख धोवै।३।

अंधे कहैं अंत निज पुर हो पाही तलि सुख सोवै।४।

 

पद:-

सतगुरु की मूरति पर सुरति लागि जाय जब भाई।१।

वाको भजन बिना साधन के खुलि जावै सुखदाई।२।

अंधे कहैं भक्त कोइ बिरले यहि मारग ठहराई।३।

अंत छोड़ तन निजपुर राजै दोउ दिसि बजत बधाई।४।

 

पद:-

क्रोध कपट को छोड़ि जो दया धर्म में लाग।१।

आतम बल वाके भयो जियतै गा वह जाग।२।

अंधे कह ऐसे भगत तन तजि जग दें त्याग।३।

अंत धाम बैकुंठ लें धोयो कुल का दाग।४।

 

पद:-

का जग आय कमायो माया के बच्चा।

गर्भ में सुमिरन का किह्यो वादा नेकौ मन न हिलायो माया के बच्चा।

झूठ प्रपंच मसखरी़ पाप में अपना समै बितायो माया के बच्चा।

अंत समय जम नर्क में डारैं बूड़यो औ उतरायो माया के बच्चा।

हर दम मार पड़ै तहँ ऊपर फटकि फटकि चिल्लायो माया के बच्चा।

अंधे कहैं सड़ौ तहँ कलपन कर्मन का फल पायो माया के बच्चा।६।

 

पद:-

मन लगा हरी से जिसका है। कहते अंधे सुफल तन उसका है।२।

जियतै में भया दोऊ दिसि की है। निज धाम गया वही खिसका है।४।

सतगुरु करि पायो चिसका है। शुभ काम करत तजि हिसका है।६।

फूटा द्वैत क प्याला बिष का है। कहीं पता लगत नहीं रिसि का है।८।

 

पद:-

साधक साधै हरि का नाम। ताको अंधे करैं प्रणाम॥

सतगुरु से लेवै यह काम। जियतै बनि जावै गुण ग्राम॥

सारे चोर लेंय चुप थाम। सन्मुख राजैं सीता राम॥

धुनि परकास दसा लै आम। दोनों कर्म देय करि खाम॥

सुर मुनि दर्शैं भीड़ तमाम। अमृत छकौ भरा घट जाम।१०।

 

चेति के जानि लेव नर बाम। तन मन मगन रहै बसुजाम॥

चन्द रोज का है यह चाम। शांति दीन बनि लो वे दाम॥

तन तजि पहुँचि जाव निज धाम। चौरासी का छूट मुकाम।१६।

पद:-

आदि शक्ति सीता महरानी। जिनसे प्रकटीं अमित भवानी॥

जो कोइ शक्तिन को नहि मानी। वाकी होय दोऊ दिसि हानी॥

पढ़ि सनि के बनते जे ज्ञानी। खुले न घट पट हैं अज्ञानी॥

मन मूरख बस जे अभिमानी। उनको सजा देंय महरानी॥

सतगुरु करि जिन सुमिरन ठानी। अंधे कहैं मिलैं सुख खानी।१०।

 

माता की पहुँचे रजधानी। वहां की शोभा कौन बखानी॥

जिनके पति हैं सारंग पानी। सुर मुनि ध्यावत तन मन सानी॥

जारी........