४७० ॥ श्री अन्धे शाह जी महाराज ॥
मुकाम सीता मढ़ी ज़िला मुज़फ्फर पुर के बचनामृत उपदेश
नाम पै मन लगा करके चोर जिन शांति करिडारा।
कहैं अंधे वही जग से जियति ही हो गया प्यारा।
सुनै अनहद छकै अमृत गगन ते बहे रहा धारा।
जगीनागिनि सुधे चक्कर कमल सब फूले एकतारा।
महक से छा गई मस्ती बहै नेनों से जल धारा।५।
रोम पुलकैं कंठ गद गद बदन क्या कांपता सारा।
मिलैं सुर मुनि लिपटि करके विहंसि सब बोलै जैकारा।
ध्यान परकास लै पहुँचा कर्म शुभ अशुभ भेछारा।
धुनी हरिनाम की होती उठै हरसै से रंकारा।
छटा सिय राम की सामने हर दम ताम न होत दीदारा।१०।
छोड़ि तन चढ़ि सिंहासन पर गया साकेत को प्यारा।
भक्त तहं अमित है बैठे रूप रंग प्रभु के सुख सारा।
चेति करिके करो सतगुरु भजन में लागो नर दारा।
नहीं तो फेरि पूछि तै हाक हो चारा। ड़ण्ड्ढड़त्त् घ् ३०० ढ़द्धठ्ठदद्यण्
बड़ा अनमोल नर तन है भजन केहित गया ढारा।
इसे क्यों मुफ्त में खोते मिलै ऐसा फिरिबारा।१६।
पद:-
गुन वन ते गृह बनत नहीं हैं बर कन्या के आहन में।
अंधे कहैं करो मति सादी पड़ि हैं दुख अथाहन में।
जैसे जीव निक सिकि मिपानै कंटक गाड़ेराहन में।
सोचि विचारि लौटि घर आवै सुख नहीं मन चाहन में।
जैसे ऊंचा नीचा कुत्ता वना जहां तहं पाहन में।
नेक निगाह चूकि जो जावै चोट नीकि हो माहन में॥
सतगुरु करै भजन विधि जानै फिरि न जाय भव दाहन में।
अंत छोड़ि तन अवध में पहुंचै वैठे शांति से साहन में॥
जौने रूख के तरे जुड़ाते। उसी की साखैं काटि गिराते॥
पापताप में हैं मन माते। अन्त छोड़ि तन नर्क को जाते॥
हरदम हाय हाय चिल्लाते। दोनों दिसि ते ह्वैगे ताते॥
हरि के भजन में जे लगि जाते। अंधे कहैं वही सुख पाते॥
मन भजन कि विधि राह में नहीं। विधि लेख भाल से कटा नहीं॥
धुनि तेज समाधि में अटाव हों। सनमुख सियाराम भक्ति॥
जब सान मान तन घटा नहीं है अंधे कही दोउ दिसि
सतगुरु करि प्रेम से हटा नहीं ...........
जिस पतरी में खात हैं उसी में करते छेद।
वै पापी घटिहा बड़े नेक नश्रावत खेद।
तन मन ते नहिं मानते जाति कुजाति क भेद॥
अंधे कह जमपुर बसैं भाषत सुर मुनि बेद।
वाहेर सर्प चलत है टेढ़ा, बिल में सीधा जाता है।१।
दुष्ट नारि नर नेक न माने उनके मन नहिं भाता है।२।
अंत छोड़ि तन नर्क जात अंह रोपे नहीं सेराता है।२।
अंधे कहैं सत्य यह बानी चारौ जुग विख्यात है।४।