२०० ॥ श्री शिशुपाल जी ॥
दोहा:-
जिन असुरन को प्रभु हत्यौ, अपने हाथन खास ।
वै हरि के ढिग को गये, मै परिवार के पास ॥१॥
सतयुग त्रेता द्वापरहु, तीनौ युगै की बात ।
अपने हाथ से मारि प्रभु, लीन पास सुनु तात ॥२॥
चक्र सुदर्शन से मेरा, शीश लीन कटवाय ।
सिंहासन पर चढ़ि गयो, जै जै कार सुनाय ॥३॥
ऐसे दीनदयाल हरि, वैर करै जो कोय ।
क्रोध करैं मारैं उसे, वास पास में होय ॥४॥
सोरठा:-
साँचा करै जो बैर, राति दिवस भूलै नहीं ।
सो पावै यह सैर, बास पास होवै सही ॥१॥