साईट में खोजें

॥ अथ गोलोक वर्णन ॥

दोहा:-

गऊ लोक साकेत ढिग, बन्यो सुहावन जान ।

ता में गौवन को लिये, रहत कृष्ण भगवान ॥१॥

अन्तरगत श्री राधिका, हरि के लीजे जानि ।

कमलासन आसन किये, बैठी श्री महारानि ॥२॥

 

चौपाई:-

आठ भुजा श्री राधे जी के। देखत बने कहत नहिं नीके ॥१॥

 

दोहा:-

राधे जी में कृष्ण हैं, कृष्ण में राधे जान।

शोभा देखत ही बनै, को करि सकै बखान ॥१॥

 

चौपाई:-

आठ भुजा हरि के हैं भाई। दुइ में धनुष बान सुखदाई ॥१॥

दुइ में शंख चक्र को जानो। दुइ में गदा पद्म को मानो ॥२॥

दुइ कर मुरली अधर धरे हैं। राग रागिनी स्वरन भरे हैं ॥३॥

श्यामै वसन श्याम हैं श्यामैं। श्यामा गौर हृदय बिच श्यामै ॥४॥

कुण्डल मुकुट कि उपमा भाई। देखत छवि सब गयो भुलाई ॥५॥

हरि मूरति मम हृदय समाई। काह कहौं प्रभु की प्रभुताई ॥६॥

 

दोहा:-

नाना रंग के वृक्ष हैं, नाना रंग के फूल ॥७॥

नाना रँग गौवैं अहैं, निरखत छवि सुधि भूल ॥८॥

बहुत वृक्ष ऐसे अहैं, जिनमें लगे अनार ॥९॥

दस दस सेर के वजन में, एकै एक शुमार ॥१०॥

 

गऊ विआती हैं नहीं, रहैं एक रस जान ॥११॥

हरि का चरित्र विचित्र है, हैं अति दूध की खान ॥१२॥

हौज बने तहँ पर बहुत, को गिनि करै बयान ॥१३॥

नाली ऐसी हैं बनीं, देखत में नहिं आन ॥१४॥

सब हौजन में हैं मिली, भीतर भीतर जान ॥१५॥

गौवैं खांहि अनार ही, और कछू नहिं जान ॥१६॥

हगैं न मूतैं जानिये, हरि इच्छा बलवान ॥१७॥

रोवन से ह्वै वायु सब, मल औ मूत्र उड़ान ॥१८॥

अति सुगन्ध तहँ पर रहै, शीतल मधुर बयारि ॥१९॥

मधुर मधुर मुरली बजै झूलैं कृष्ण मुरारि ॥२०॥

 

झूला पड़ा अधार बिन, राति वहाँ नहिं होय ॥२१॥

श्याम प्रकाश रहैं वहाँ, नैनन देखा होय ॥२२॥

गऊ लोक की छवि अमित, कौन सकै बतलाय ॥२३॥

मन्द मन्द मुसकात हैं, मोहन कृष्ण कन्हाय ॥२४॥

सब गौवन के थन अहैं, सात सात सुनि लेहु ॥२५॥

निज नैनन देखा अहै, सत्य वचन है एहु ॥२६॥

बहुतिन के तो सींग हैं, बहुत हैं मुंडी जान ॥२७॥

चिक्कन तन ऐसे अहैं, हाथ धरौ रपटान ॥२८॥

दूध थनन ते गिरत है, दुहै नहीं तहँ कोय ॥२९॥

हरि की लीला अगम है, कहै कौन विधि कोय ॥३०॥

 

जहां गिरै तहँ तुरत ही, नीचे को चलि जाय ॥३१॥

नालिन में ह्वै के तुरत, हौजन में ठहराय ॥३२॥

हौजन में भरि जात है, अपनै गाढ़ा होय ॥३३॥

हव्य उसी को कहत हैं, स्वाद विचित्रै होय ॥३४॥

चारों बैकुण्ठन बँटै, जाय इन्द्र के धाम ॥३५॥

शिव ब्रह्मा को मिलत है, जाय भुशुण्डी धाम ॥३६॥

लोमश वलि औ शेष जी, औ सब सुरन को जान ॥३७॥

उन सब को नित मिलत है, ऋषि मुनि जौन महान ॥३८॥

गरुड़ अनेकन रूप धरि, हरि इच्छा ते जान ॥३९॥

पहुँचावत सब जगह हैं, समय समय सामान ॥४०॥

 

श्याम श्याम गौवैं कहैं, घूमैं करैं किलोल ॥४१॥

जारी........