२ ॥ श्री १०८ परमहंस राम मंगल दास जी महाराज ॥
जारी........
विश्वामित्र वशिष्ठ यमदग्नि अत्रि भृगु अंगिरादि मुनि नारद को।
पाराशर अष्टावक्र व्यास शुकदेव परीक्षित तारन को।
भरद्वाज कश्यप पुलस्त्य सनकादिक रूप निहारन को।४।
तारागण सूरज चन्द्र इन्द्र अरु वरुण कुबेर विशारद को।
वामदेव कुम्भज कपीश श्री शेष बिना महि धारत को।
भरत लखन रिपु दमन कपिल मुनि साठि सहस सुत जारत को।
सुर मुनि शक्तिन तीर्थन प्रणाम इनके बिन अधम उधारत को।८।
भजन प्रभाती:-
सीता पति रामचन्द्र राधा पति कृष्ण चन्द्र सुनो अर्ज मेरी।१।
काम क्रोध लोभ मोह अहंकार घेरी।२।
इनको अब शान्त कीजै अभय दान मोहिं दीजै कीजिये न देरी।३।
चितओ अब नैन कोर कारज तब सरै मोर,
पाहि पाहि पाहि नाथ चरण शरण तेरी॥ सीतापति रामचन्द्र ० ।४।
राग ध्रुपद:-
राम कृष्ण गति अति अपार, पावत नहिं कोई पार।१।
ब्रह्मा ऋषि मुनि फणीन्द्र, तारा गण चन्द्र इन्द्र शंकर जी ध्यान धारि।२।
गणपति अरु शारदादि हनुमत जी औ तमारि, चौदह भुवन लोक तीन उदर माहिं वसत झारि।३।
कहत हौं हरि हरि पुकार बेड़ा मेरो कीजै पार शरनि आये कि रखनेहार।४।
दोहा:-
श्री यमुना जी के निकट, राजापुर है ग्राम।
सब जन जानत जगत को तुलसीदास है नाम॥
पद:-
गोस्वामी जी की सूरति करूँ मैं बयान।
भद्र रूप शिर शिखा मनोहर गोखुर की परमान।
सुन्दर बदन मदन छवि लाजै धोती शुकुल महान।
काँधे श्वेत जनेउ छाजै गले में कण्ठी जान।
मानस श्वेत वस्त्र में बांधी बाँयें बगल दबा।५।
शुभ पलाश की चरण पादुका कहँ लगि करूँ बखान।
शान्त स्वभाव प्रेम की मूरति करत राम गुण गान।
दर्शन भये पाप सब छूटे आवागमन नशान।८।
दोहा:-
कई दफ़े दर्शन भये, राति सबेरे शाम।
आशीर्बाद दियो हमैं, जपो सदा हरि नाम॥
दोहा:-
प्रथम तुम्हैं सुमिरन करूँ श्री गणेशाय नम:।
शीर्श नाय विनती करूँ, तुम चरण नाय नम:॥
सरस्वती माता मेरी, तुम्हैं नवाउँ माथ।
कर जोरूँ अर्जी करूँ, शिर पर धरिये हाथ॥
शिव मारुत सुत कृपा निधि, मो पर हो अनुकूल।
नैनन देखा लिखत हौं, होय न मुझसे भूल॥
सत्य लोक साकेत है, अति अपार छवि भौन।
राम रूप इच्छा रहित, बैठे सब मुख मौन॥
बिहार बाग जहँ है बनी, नाना रँग के वृक्ष।
मणिन जड़ित पृथ्वी तहाँ, कैसी सुन्दर स्वच्छ॥
सिंहासन जहँ पर धरे, शोभा कही न जाय।
तिन पर बैठे भक्त जन, श्याम स्वरूप बनाय॥
सर्वेश्वर के सामने, बैठे गुरू कृपाल।
नैनन में नैना मिले, देखि के भयों निहाल।७।
चौपाई:-
सबसे ऊँचा है सिंहासन। राम ब्रह्म का तेहि पर आसन॥
अमित काम छवि बरनि न जाही। शेष शारदा की गमि नाहीं॥
प्रभु के अन्तरगत महरानी। रूप राशि शोभा गुण खानी॥
शंख चक्र गदा पद्म न जहँवा। मुरली धनुष बाण नहिं तहँवा॥
राति दिवस जहँ होतै नाहीं। खान पान नहिं धाम न छाहीं।५।
महा प्रकाश अखण्ड एक रस। वरनि सकै को कौन कहै कस॥
जारी........