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२८ ॥ श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदास जी ॥


पद:-

अमरपुरी से आई यह धुनि कहत जिसे शिव वानी।

महा शून्य को वेधन करि कै शून्य में आय समानी।

शून्य से आय गगन में पहुँची ररंकार फरियानी।

गगन से त्रिकुटी पर आसन कियो बिधि हरि शिव जप ठानी।

रेफ बिन्दु हैं राम जानकी कहत देव मुनि ज्ञानी।५।

जानै योगी इस रहस्य को चित एकाग्र से ध्यानी।

चमकै तेज कहै को मुख से है यह अकथ कहानी।

ख्याल करै थोड़े दिन तन मन प्रेम लगाय के प्रानी।

दुइ दल कमल के ऊपर देखै बिन अधार सुख दानी।

अनहद बाजा बहु बिधि बाजैं होय मस्त मन मानी।१०।

एक अंश त्रिकुटी से आयो कण्ठ मध्यमा बानी।

कण्ठ से हिरदय में फिरि आयो पैशन्ती भइ बानी।

हिरदय से फिर नाभि में आयो परा बानि कहलानी।

जिव्हा पर वैखरी बिराजै कहै मृदुल कटु बानी।

सार असार बतावन के हित यह बानी हरि ठानी।१५।

नाहीं तो जानत कोइ कैसे धनि धनि सारंग पानी।

रोम रोम ते ररंकार धुनि सन्मुख प्रभु महरानी।

पच्छिम दिशि की खिड़की खुलि जाय मुक्ति भक्ति गुणखानी।

विहंग मार्ग तै होय छिनै में पहुँचि जाय तब प्रानी।

ध्यान समाधि करै को सुमिरन स्थिर भइ तहँ वानी।२०।

आवागमन क काम रहा नहिं राम रूप भे जानी।

बिना गुरु के मिलै न यह पद तुम से सांच बखानी।

श्री नरहरियानन्द गुरू मम जिन किरपा हम जानी।

तुलसी दास कहैं सुनिये सुत हरि मर्य्यादा ठानी।२४।


पद:-

प्रेम भाव से मुक्ति भक्ति मिलि जाय देर नहि लागै।

सुर मुनि आयके करैं बत कही राम नाम धुनि जागै।

काम क्रोध मद लोभ मोह माया तीनो गुण त्यागै।

हर दम हरि को देखै सब दिशि सबै कामना भागै।

जियतै में जो जानी प्राणी छूटै द्वैत के धागै।५।

दीन भाव ह्वै गुरु से जानै सूरति शब्द में तागै।

पूरा शूर सन्त तेहि जानौ चरन कमल अनुरागै।

तुलसीदास कहैं सुनिये सुत नाम के रंग जो पागै।८।


दोहा:-

तुलसी हरि के भजन बिन, मिटै नहीं दुख द्वन्द।

जब तिरगुन के परे हो, तब छूटै यम फन्द॥

हर दम सुमिरन होय जब, छूटि जाय भ्रम फन्द।

तुलसी सन्मुख रहैं हरि, करुणा निधि सुख कन्द॥

निर्गुण केवल बोध हित, सर्गुण आनन्द कन्द।

तुलसी दोनों एक हैं, समुझे नहिं मतिमन्द॥

निर्गुण सर्गुण बनत हैं, सर्गुण निर्गुण होय।

तुलसी लीला अगम है, पार न पावै कोय।५।