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१०२ ॥ श्री दधिबल जी ॥


पद:-

पौन खींचि पूरब से उत्तर जड़ समाधि तक जाय सकैं।

आगे जान कि गैल नहीं वहँ से किमि पता लगाय सकैं।

मन तो सृष्टी अलग रचत है, आयू आप बढ़ाय सकैं।

पांच त्तव षट चक्कर सातौ कमलन लखि मुसक्याय सकैं।

अन्तरध्यान और बहु सिद्धिन में पड़ि गाल बजाय सकैं।

मन का सारा खेल है भाई मन जीतै सुख पाय सकैं।५।

उतरै प्राण फेरि जस के तस इधर उधर बौवाय सकैं।

सतयुग त्रेता द्वापर कलि मन इस बिधि नहिं ठहराय सकैं।

नाम कि धुनि के खुले बिना सिय राम न नित दरशाय सकैं।

जियतै जे नहिं जानै दधि बल भर करके कैसे जाय सकैं।९।