॥ माटी खान लीला ॥
चौपाई:-
माटी खांय खवावै ग्वालन। घोटलन के बल चलि जग पालन॥
कहैं ग्वाल सुनिये मम भैया। बड़ी मीठमाटी सुख दैया॥
दूध दही भोजन नहिं पैहैं। रोज आय माटी यह खैहैं॥
ऐसा स्वाद बिचित्र है भाई। खातै बनै बरनि नहि जाई।३०।
वृज के कोई जानि न पावैं। किसी के आगे यँह नहि आवैं।
मैया जो कछु भोजन देहैं। सो लै कर बाहर हम ऐहैं॥
बाहेर गौवन देब खवाई। मुख में कछु मलि लेव लगाई।
फिरि घर में पहुँचव हर्षाई। पानी मांगव मातु से जाई॥
माता पानी देहैं आई। मुख औ कर धोवैं हर्षाई।
जल वँह पर कछु लेवै पाई। तब किमि जानै हमरी माई॥
माता ते पूछव लपिटाई। खेलन जांय श्याम संघ माई।
कहिहै मातु जाव तुम भैया। खेलौ सब जन संघ कन्हैया॥
तब सब जन मिलि यँह पर आवैं। माटी खांय औ खेल मचावैं।
कहैं कृष्ण सुनिये सब भाई। गुण या को हम तुम्है बताई।३५।
एक दफै नित या को पावै। तन बल बढ़ै शरीर मोटावै।
तेइस घंटा भूँख नहि प्यासा। खेलन को क्या भयो सुपासा॥
बोलैं ग्वाल सुनो मम भाई। आज तलक काहे न बताई।
कहैं कृष्ण सुनिये सब भैया। या को भेद आज हम पैया॥
राति को एक पुरुष चलि आयो। या को भेद हमैं बतलायो।
कारो कारो मैं हौं जैसा। मानो बचन रहै वह वैसा॥
कूदैं ग्वाल हँसै दै तारी। जै श्री कृष्ण चन्द्र बलिहारी॥
दोहा:-
रह्यो मनसुखा ग्वाल एक, गयो कृष्ण के भौन।
यशुमति से चुपके कह्यौ, भई बात यँह जौन।३९।
चौपाई:-
आये भौन जबै यदुराई। यशुदा लीन गोद बैठाई।
माता पूँछै कुँवर कन्हाई। आज सुना माटी तुम खाई॥
हँसी करावति हौ तुम भैया। कौन कमी तुम को सुख दैया।
जो चाहौ सौ भोजन पावो। जो चाहौ सो सबन खिलावो॥
ग्वाल बाल लै माटी खैहौ। ह्वै है हानि सवै रोगिऐहौ।
कहै कृष्ण सुनिये मम माई। माटी भला जाति कहु खाई॥
माटी मे क्या भरी मिठाई। पावै जो कोइ मूँह खिसकाई।
झूँठी बात कौन बतलाई। मानि गईं ताको तुम माई॥
ग्वाल बाल सब लेव बोलाई। पूँछि लेव माटी को खाई।
तब फिरि हमको बांधौ मैया। जो चाहौ सो देव सजैया।४४।
देखि लेव हम मूह को बाई। माटी कहूँ लगी है माई॥
दोहा:-
अस कहि श्याम खड़े भये मूह को दीन पसार।
यशुमति तहँ निरखत भईं, लीला अपरम्पार॥
ब्रह्मा बिष्णु महेश जी, बैठे सुर मुनि जान।
असुर नाग बन ताल गिरि, सरिता सागर मान॥
प्रेत योगिनी सिंह खग, कृम को करै बखान।
बृज पुर बासी सहित गृह, आपौ तामें जान।४७।
चौपाई:-
अगणित लोक भुवन औ खण्डा। अगणित द्वीप और ब्रह्मण्डा।४८।
दोहा:-
मुरछा माता को भई, ढाई घरी की जान।
ज्यों की त्यों बैठी रहीं नेक न तनकौ भान॥
चौपाई:-
तब कर श्याम शीश पर फेरा। सुधि ह्वै गई बिहंसि कर टेरा।
बैठि के सोय गईं तुम माई। ऐसी ठीक नहीं औंघाई॥
गिरि कहुँ परौ चोट लगि जाई। हम को भोजन कौन पवाई।
दोहा:- असि कहि गोद में बैठगे डारयो मोह को फन्द।
जारी........