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॥ माटी खान लीला ॥

जारी........

लीला अगम अपार है जय जय आनन्द कन्द।५१।

 

चन्द्रा बलि छलन लीला

 

दोहा:-

चन्द्राबलि को हरि छल्यौ, बनिके भगिनी जाय।

चक्की पीस्यो साथ में गोबर पाथ्यो धाय॥

पाक बनायो प्रेम से, बरतन माँज्यो जाय।

झाड़ू से गृह झारि कै चौका दीन लगाय॥

संगै मे भोजन कियो हँसि हँसि कै बतलाय।

शयन कियो संग में, मुख चूम्यो हर्षाय॥

चन्द्रा बली उठि बैठि कै, चरनन शिर धरि दीन।

धन्य धन्य सुखमा भवन, तुम सम को परवीन।५५।

 

गृह उपद्रव लीला

 

चौपाई:-

गृह में कृष्ण उपद्रव ठानै। खेल करैं जोई मन मानै।

गगरिन का पानी भभकाई। दारे भागि जांय हंसि भाई॥

आटा दाल औ चावल जाई। चुपके एक में देंय मिलाई।

घृत में नमक छोड़ धरि देवैं। कबहूँ बूरा को भरि देवैं॥

कबहूँ घृत औ तेल मिलाई। धरि देवैं चुपके से जाई।

कबहूँ दही कि मेटुकी धाई। खोलि के बूरा देंय मिलाई॥

टेटी करिल अचार उठाई। दही में डारि के देंय हिलाई।

कबहूँ दही में आटा नावैं। कबहूँ चावल दाल मिलावैं॥

कबहूँ दही की साढ़ी खावैं। ता में रोटी को धरि आवैं।

कबहूँ रोटी भात कन्हैया। दही में छोड़ैं बांधि पोटैया।६०।

 

कबहूँ माता की लै सारी। दही में बोरि धरैं बनवारी।

कबहूँ रोटी चुपके लावैं। जल की गगरिन में धरि आवैं॥

कबहूँ भात घड़न कछु भरि कै। बन्द करैं ढक्कन को धरि कै।

कबहूँ दही में तेल मिलावैं। कबहूँ घृत लै तेल में नावैं॥

कबहूँ तेल घड़न में नावैं। पानी ऊपर चट उतरावै।

कबहूँ पानी में घृत नावैं। आय के ऊपर वह जमि जावै॥

कबहूँ दूध वारि में नावैं। जल दूधै के रंग ह्वै जावै।

कबहूँ जल में दही मिलावैं। कबहूँ साढ़ी ही धरि आवैं॥

कबहूँ दही में दूध मिलावैं। कबहूँ दूध में दही को नावैं।

कबहूँ दूध में पानी भर दें। कबहूँ दही में पानी कर दें।६५।

 

कबहूँ सिकहर छोरि कन्हाई। दही में देवैं तुरत भिजाई।

लोहा गाड़ि लेंय लकुटी में। चुपके छेद करैं मेटुकी में॥

कबहूँ कोयला पीस के भाई। दही दूध घृत में भुरकाई।

आटा दाल औ चावल माहीं। छोड़ैं तेल फेरि भगि जाहीं॥

ऊखल धरि लें सिकहर छोरी। दूध में जाय के देवैं बोरी।

करन रसोई यशुमति जावैं। दूरिहि ते हरि घात लगावैं॥

दौरि के रोटी लेंय उठाई। द्वारे भागि जांय हसि भाई।

पहुँचैं आय फेरि यदुराई। लिपटि जांय यशुमति को धाई॥

रोटी लिहे हाथ अध खाई। माता के मुख देंय लगाई।

सब रोटिन में देंय छुवाई। फिरि खावैं हंसि कुँवर कन्हाई।७०।

 

दूध पिअन लागैं फिर भाई। अंचल ओढ़ि लेंय सुख दाई।

उगिलैं दूध कहैं मम माई। आज दूध में है करुवाई॥

का मिरचा खायो बहु माई। की या में तुम लिहेव लगाई।

यशुमति कहति सुनो यदुराई। अब तुम करते अधिक ढिठाई॥

तात तुम्हारे गृह जब ऐहैं। तब उनको हम सब बतलैंहैं।

रोज रोज बहु हानि करत हौ। नेकहुँ नहि तुम धीर धरत हौ॥

हारि गयन हम तुम ते भय्या। नेकहु नहि तुम कहा मनैया।

एहेके खातिर तुम को पाला। अब हीं ते बतलावत टाला॥

रोवां रोवां में यदुराई। अवगुन तुमरे भरा देखाई।

जारी........