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१६१ ॥ श्री गया जी ॥


चौपाई:-

आप जपैं आपै बतलावैं। आप आप में आप समावैं।

आपै गुरु आप ही चेला। आपै करते ठेलकि ठेला।

आपै एक अनेक न रूपं। आपै अनुपम श्याम स्वरूपं।

आपै मौन व प्रगट अलापैं। आप अखण्डित सब कछु आपै।

गया कहैं या बिधि को जानै। नाम गुरू से लै जप ठानै।

ताकी गया होय नहि आवैं। बैठै अमर पुरी हर्षावैं।६।