१६५ ॥ श्री कढ़िले दास जी ॥
ग़ज़ल:-
ब्रह्म बनते हो क्यों झूँठे ब्रह्म को चीन्ह तो लीजै।
नाम सतगुरु से लै करके सुरति को शब्द पर दीजै।
ध्यान लय प्राप्त कर भाई चपल मन शान्त तो कीजै।
झमेला बासनाओं का ज्ञान अग्नि में धरि दीजै।
दीन बनि आप को मेटौ प्रेम में तन व मन भीजै।
कहैं कढ़िले छुटै बन्धन नाम औ रूप रस पीजै।६।