१६६ ॥ श्री मत्त गजेन्द्र जी ॥
कजरी:-
कातिक शुक्ल पक्ष नौमी को परिकरमा करने सब जाँय।
प्रथम करैं सुर मुनि सब फेरी भरथ कुण्ड पर आय।
भरथ कुण्ड में करैं मार्जन सूर्य कुण्ड चलि जाँय।
सूर्य कुण्ड दहिनावैं तब फिरि करैं मार्जन धाय।
सूर्य कुण्ड से चलै जानकी नगर में पहुँचै आय।५।
करैं जानकी नगर की फेरी हर्षि हर्षि गुन गाय।
राजा जनक बास यहँ कीन्ह्यौ दुइ महिना तक आय।
ग्राम मोल लै दशरथ जी से एक शंख में भाय।
हीरै हीरा दीन राज ऋषि सन्दूखै भरवाय।
सुवरण की सन्दूखैं सुन्दर चमकैं चम चम भाय।१०।
नाम जानकी नगर पड़ा तब से मैं कहौं सुनाय।
चलैं जानकी नगर से सुर मुनि कुण्ड निर्मली जाँय।
करैं मार्जन फेरि पहुँचि गुप्तार पै आवै जाय।
करि मार्जन चलैं गुप्तार से पहुँचि जमथरा जाँय।
करैं मार्जन चलैं पहुँचि फिरि चक्र तीर्थ पर जाँय।१५।
करैं चक्र तीर्थ में मार्जन ब्रह्म कुण्ड चलि जाँय।
ब्रह्म कुण्ड में करैं मार्जन स्वर्ग द्वार को जाँय।
स्वर्ग द्वार से करैं मार्जन राम घाट चलि जाँय।
राम घाट में मज्जन करिके फिरि विल्व हर को जाँय।
करि मज्जन विल्व हर से चलि फिरि सूर्य्य कुण्ड को जाँय।२०।
सूर्य्य कुण्ड से चलि फिरि पहुँचैं भरथ कुण्ड पर आय।
भरथ कुण्ड की फेरी देवैं पांच फेरि हर्षाय।
जय जय कार भरथ को बोलैं दुन्दुभि साज बजाय।
जिस मुकाम में जल नहिं होवै सुर मुनि हंसै ठठाय।
लेंय मृत्तिका कर कमलन ते मुख में धरि कछु भाय।२५।
चलैं फेरि निज निज धामन को बार बार शिर नाय।
त्रेता युग के जन्म कि तिथि यह कह्यो देव मुनि गाय।
तन मन प्रेम लगाय करै परिकरमा पाप नशाय।
अवध पुरी मुद मंगल दायनि श्री सरयू जँह माय।
राम भरथ औ लखन शत्रुहन प्रगटे यहँ पर आय।३०।
दशरथ पिता मातु कौशिल्या और कैकेयी माय।
मातु सुमित्रा गुरू वशिष्ठ जी रहे नित्य दुलराय।
पुरवासी छवि छकैं रोज ही भूख प्यास बिसराय।
नाना चरित यहाँ पर कीन्ह्यो कौन सकै बतलाय।
परम पुनीत कहैं सब सुर मुनि आवैं नित प्रति धाय।३५।
जन्म भूमि तुलसी चौरा के फेरी के हित भाय।
पाप यहाँ पर करै जौन कोइ जड़ पताल को जाय।
काटै नहि फिर बज्र के काटे अन्त में नरकै जाय।
धर्म यहाँ पर करै जौन कोइ सो बैकुण्ठै जाय।
अहंकार औ कपट त्यागि दे यह दर्जा पाय।४०।
यहां वहां दोनो दिशि खातिर धर्म ध्वजा फहराय।
भजन करै जो कर्म धर्म तजि सो साकेत को जाय।
सब से बड़ा नाम का सुमिरन जो गुरु देंय लखाय।
नाम से रूप प्रगट चट होवै श्याम मनोहर आय।
होय प्रकाश समाधी होवै सुधि बुधि सबै भुलाय।४५।
नाम के अन्तर गत सब कौतुक जानि लेव दुख जाय।
नाम कि धुनी सुनै फिरि हर दम सन्मुख रूप देखाय।
जारी........