१९१ ॥ श्री पूतना जी ॥
जारी........
सोरठा:-
नाक कान कटवाय लीन लखन से राम जी।
कह्यों हाल सब गाय खर दूषण ते आय जी।१।
चले लड़न मम भाय मैं शरीर त्यागन किहेंव।
चढ़ि बिमान हर्षाय हरि पुर में बासा लिहेंव।२।
चौपाई:-
कौन काम हम उत्तम कीन्हा। छल बल करि जीवन दुख दीन्हा॥
मानुष भोजन मिल्यो जहां तक। और जीव नहि हत्यों तहां तक॥
जाति निशाचर की थी मोरी। छल का रूप बुद्धि ते कोरी॥
छल का फल पायौं मैं आला। बड़े लघुन की करैं न ख्याला॥
श्राप देंय फर करैं उबारा। मारैं धाम देंय निज प्यारा।५।
दोहा:-
जो गति देवैं राम जी सोई देवैं भक्त।
दुष्टन के हित के लिए भक्त प्रगट भे जक्त॥
सोरठा:-
सूर्पणखा कहैं गाय, प्रभु में भक्त में भेद नहिं।
मानो मम बचनाय, अधमन पर दाया करहिं॥