२१७ ॥ श्री त्रिशिरा जी ॥
चौपाई:-
त्रिशिरा कहैं सुनो मम बयना। मारि के हरि मोहिं दीन्हेव चैना।१।
छूट शरीर दिब्य तन पावा। चढ़ि विमान बैकुण्ठ सिधावा।२।
दोहा:-
राम लखन सब राक्षसन मारि दीन हरि धाम।
योग यज्ञ जप धर्म का फल पायो सब आम।१।
अधमन पर इतनी कृपा जे भजते चित लाय।
तिनको गोदहि में लिये घूमत हैं रघुराय।२।