२२८ ॥ श्री ब्रह्मा जी के बाहन हंस जी ॥
चौपाई:-
श्री ब्रह्मा जी का मैं बाहन। हंस नाम मम हरि आराधन।
चोंच मोरि हरि ऐसि बनाई। तामे तीखी भरी खताई।
पय पानी या से बिलगावों। डारत चोंच देर नहि लावों।
फटै दूध पानी अलगावै। दूध के आंठा सब बनि जावै।
आंठा पाय लेंव हर्षाई। पानी भरा रहै नहि पाई।५।
मेरो जो परिवार है भाई। मान सरोबर रहत सदाई।
भस्म में मोती के बल जो है। मान सरोबर जल में सो है।
जल पीवैं ता में सब तैरैं। करैं सरोबर में खुब सैरैं।
मोती वहां होत है नाहीं। सत्य बताय दीन तुम पाहीं।
मोती का गुन जल में जानो। या से मस्त रहैं सब मानो।
हम नित्य दिव्य भोग को खाते। यह सब भेद तुम्हैं बतलाते।११।
दोहा:-
जो या में संशय करै मान सरोवर जाय।
देखै मम परिवार तहँ निज नैनन हर्षाय।१।
जल निर्मल औ अति गहिर मध्य में थाह न भाय।
संत जौन कोइ गये हो तिन ढिग पूँछै जाय।२।
जोड़ै जोड़ा उड़त हैं जब मन उनका होय।
घूम के तब फिर गिरत हैं अन्य न जावै कोय।३।
जल के ऊपर निशि में सोवैं। जल के निकटै अण्डा देवैं।
राम ब्रह्म का खेल है सारा। भजै नाम ता को निस्तारा।४।
बार्तिक:-
श्री राजा इक्ष्वाकु, अज, सगर रघु, मनु, दिलीप, मान्धाता, भगीरथ, हरिश्चन्द्र, दशरथ, अम्बरीष, रामचन्द्र, लवकुश, नृग, दधीचि, प्रह्लाद, ध्रुव गालव, जनक, कर्ण, मोरध्वज, नल, नहुष, प्रियावर्त, इन सबके यहां हंस रहते थे। उत्तम सरोवर बने थे। दूध मोती सेवन करते थे और जल में किलोल करते थे। जब सरोवर बन कर तय्यार हो जाता था तो जितने हंसो को निमंत्रण जाता था उतने चले आते थे और साल में एक जोड़ा उनसे होता था। राजा बीर बिक्रमादित्य जो उज्जैन नगरी में हो गये हैं उन्होने एक सरोवर बनवा के हंसो को निमंत्रण भेजा कि हमारे यहां सौ सहस्त्र हंस मानसरोवर से कृपा करके पधारें। वैसा ही हुआ। हंस आये और तीन वर्ष रहे। नित्य दूध मोती पाने को मिलता था। फिर हंसों ने कहा कि हम सब मानसरोवर जाने की इच्छा करते हैं।
राजा ने कहा अभी मेरे एक मकान का एक कोना भी मोतियों से नही खाली हुआ है। अभी और कुछ दिन रहना चाहिये। हंसों ने कहा आप बड़े प्रतापी भगवत के अंश हो। ऐसा राजा उदार, दानी और पराक्रमी, निर्भय इस कलि में हो नहीं सकता। तुम्हारी कीर्ति हर युगों में रहेगी। यह कह कर सब हंस मानसरोवर को चले गये। एक हंस पांच या छ मोती और एक पाव दूध इस से अधिक नहीं खा सकता। जो मोती कंजा के बराबर होते हैं और छोटे छोटे पत्थर के टुकड़े और छोटे छोटे शंख खा कर पचा देते हैं। हंस मानसरोवर में बावन लाख (५२,००,०००) हमेशा रहते हैं। भगवान की कृपा से किसी युग में कम नही होते। कलि में उनकी आयु साठि (६०) वर्ष होती है। द्वापर में इसकी दस गुनी और द्वापर से दस गुनी त्रेता में और त्रेता से दस गुनी सतयुग में। हंस मरने के पहले ही जल से अलग होकर पृथ्वी पर बैठ कर शरीर त्यागते हैं। और एक पक्षी जो बत्तख के शरीखे होता है उसे कड़ाकुल और सावन भी कहते हैं। वह भी मानसरोवर में चारों तरफ़ रहते हैं, और मछली पकड़कर खाते हैं। वह भी रात दिन रहते हैं और दो तरह के होते हैं। एक छोटे और एक बड़े। उनमें भी उड़ने की ताक़त बहुत होती है। परन्तु जहाँ झील या बड़े तालाब होते हैं वहीं उतर पड़ते है
ं। यह पहाड़ी पक्षी कभी कभी इस देश में भी चले आते हैं। उनको यहां के लोग शिकार करके मार खाते हैं और जो बच जाते हैं वह फिर पहाड़ी सरोवर या झीलों में जा कर बास करते हैं। यह रात्रि में बहुत जागते हैं। जहां चाप मिलती है तहां तुरत बोलकर उड़ने लगते हैं और ऊँचे जा कर मड़राया करते हैं। फिर देर में आकर जल पर गिरते हैं। कड़ाकुल यानी सावन जिनको कहते हैं वह छोटे छोटे पत्थर भी खा कर पचा देते हैं जैसे कपोत और बनेवा, पंडुख सीकपर, लेदुक यह भी कंकड़ और पत्थर खाकर हजम करते हैं और जब बीट करते हैं तब चून सरीखे हो जाती है। इन सब के शरीर में गर्मी बहुत होती है। इसी कारण से जठराग्नि बहुत तेज रहती है। हंसों में उड़ने की ताक़त अधिक होती हैं। जब मण्डलाकार उड़ते हैं तब देखने में बड़ा आनन्द आता है। उनके शरीर में चमक बहुत होती हैं। हंसों को यदि दूध पहिले दे दिया जाय तो मोती नहीं पाते। अगर मोती देकर दूध दिया जाय तो बहुत प्रसन्न रहते हैं।
हंस मारने से बोलता नहीं है। आँसू गिरते हैं और फटकता है। अगर तुम उसको पकड़ लो और कहो कि तुम को हम थोड़ी देर में मार डालेंगे तो उसके आँसू जारी हो जावेंगे। ऐसा सच्चा और गरीब होता है उसे कभी कोई मारता ही नहीं है। एक समय कंस ने इस बात की परिक्षा करके फिर छोड़ दिया था। एक जोड़ा हंसों का पकड़वा करके परिक्षा करवाया था। आज कल के समय में हंस जो जवान होता है वह बीस सेर पक्का होता है। इसका दूना द्वापर में, द्वापर से दूना त्रेता में और त्रेता से दूना सतयुग में। जब घींच उठाकर खड़ा होता है तब एक गज़ का लम्बा मालूम पड़ता है। द्वापर में डेढ़ गज़ त्रेता में दो गज़ और सतयुग में ढाई गज़ लम्बा होता है। हंस सब एक रंग श्वेत चिक्कन और बड़े चमकीले होते हैं चोंच और पग सोबरण के समान होते हैं। शकल बत्तख सरीखे होती है। हम में और उन में सिर्फ प्रकाश का अन्तर होता है। हम दिव्य हैं हम में प्रकाश ज्यादा है। वह प्राकृत हैं उनमें कम हैं। परन्तु आत्मा तो एक ही है। हर एक युग में जलवायु बदला करती है। कलि से जलवायु द्वापर में पुष्ट, द्वापर से त्रेता में पुष्ट, और त्रेता से सतयुग में पुष्ट होती हैं। और जो दिव्य हंस इन्द्र पुरी में रहते है उनके दिव्य दूध, दिव्य
मोती और दिव्य जल के सरोवर बने हुये हैं। यह बात यह बात ध्यान करने वाले देखते हैं। मानसरोवर में पहिली स्नान देवता और मुनियों की होती है, फिर दूसरी स्नान हरद्वार में होती है, और तीसरी स्नान तीर्थराज प्रयाग में होती है और सायंकाल की सन्ध्या बन्दन पुष्कर पर होती है। यह नित्य का नेम है, और श्री अवधपुरी में सब देवता और मुनी नित्य जन्म भूमि की और तुलसी चौरा की परिक्रमा करते हैं। श्री मधुपुरी में श्री कृष्ण जी का जहां अवतार हुआ है वहां और जहां श्री राम जी ने धनुष का खण्डन किया है वहां और कैलाश में जहां धनुष धरा जाता है इन सब भूमिकाओं को अति पुनीत समझकर प्रेम पूर्वक जाते हैं और नित्य दरबार में जाते हैं। उन सब के लिये कोई परिश्रम नहीं। राम नाम के प्रताप से अनन्त रूप धरने की शक्तियां हो गई हैं। अपने अपने स्थानों में भी मौजूद रहते हैं और सब जगह जाते भी हैं। जिस जगह आप प्रेम करो उसी जगह मौजूद भी हैं। वह सब तुम्हारे शरीर में भी हैं और बाहर भी हैं। राम नाम के प्रताप से सब कुछ मालूम होता है। उसी के अन्तरगत सब खेल है।