२२९ ॥ श्री माया देवी जी ॥
दोहा:-
हरि से करते प्रीति नहि झूठें बनते सन्त।
पाठ करैं माला जपैं मन घूमत है अन्त।१।
या से कछु नहि ह्वै सकै जब तक मन थिर नाहिं।
तन मन प्रेम लगै जबै सन्मुख हरि दर्शाहिं।२।
जप औ पाठ का फल तुरत मिलै करौ यह काम।
सब में ब्यापक कहत सब सुर मुनि राम क नाम।३।
चौपाई:-
सुनौ नाम धुनि हर दम भाई। निरखौ सन्मुख सिय रघुराई।
ध्यान में पहुँचि जाव जब प्यारे। देखौ लीला अजब बहारे।
लय में सुधि बुधि कछु नहिं रहई। कौन बताय सकै का रहई।
हम सब हरि सुमिरन को जानी। हरि जो कार्य्य दियो सो ठानी।
हम को या में दोष न कोई। जो जस करै तैस फल होई।
बिना परिक्षा जाय न पैहौ। जो डरि जाव तो गोता खैहौ।६।
दोहा:-
इधर उधर ते जात हैं अब हीं चेतत नाहिं।
बे समुझन के कहे परि अन्त में नरकै जाहिं।१।
चले रहे हरि भजन को ओढ़ि लीन परपंच।
नैना चारों बन्द भे किमि सूझै सतपंच।२।
भीतर में कछु और था ऊपर था कछु और।
काम सिद्ध वह होयगो जा पर हर दम गौर।३।
हरि को जे सुमिरन करैं तिन चरनन बलिहार।
त्रिभुवन पति की छाह मैं माया नाम हमार।४।