२३३ ॥ श्री निजामीदास जी ॥
जारी........
नृप धरणी पर गिरते देखा। तब फिर तन को त्यागत देखा।
अवध में दुख अति व्यापत देखा। भरथ को किरिया करते देखा।
जँह बिल्ब हर शम्भु तँह देखा। गंगा तट सब जाते देखा।
केवट लखि सब आते देखा। चरनन में गिरि जाते देखा।६९०।
हरि हँसि उर में लाते देखा। फिरि मृदुबचन सुनाते देखा।
केवट अति हर्षाते देखा। कच्छप पीठि कि कठवति देखा।
ता में जल भरि लावत देखा। हरि लखि के मुसकाते देखा।
सिया लखन सकुचाते देखा। हरि को चरन बढ़ावत देखा।
केवट प्रेम से धोवत देखा। तब सिय लखन धोवावत देखा।७००।
चरणोदक हँसि पावत देखा। नाव में फिरि बैठावत देखा।
मन ही मन गुन गावत देखा। धीरे धीरे खेवत देखा।
छवि सागर को चितवत देखा। नाव को तट लै जाते देखा।
हरि सिय लखन उतरते देखा। चित्रकूट चलि पहुँचे देखा।
बन की शोभा बढ़ते देखा। सुख से तँह पर रहते देखा।७१०।
ऋषि मुनि तँह बहु आते देखा। नाम के अन्तरगत सब देखा।
निर्गुण सर्गुण लिखा अलेखा। चित्त कि वृत्ती सुधरी देखा।
फिरि गइ नैन कि पुतरी देखा। हरि के चरित हैं अगम अलेखा।
या में जनि कोइ मानै मेखा। कहैं निजामी मैं क्या देखा।
आपै अपने खेल को देखा।७१९।