२८३ ॥ श्री रगण जी ॥ चौपाई:- रगण कहैं रामै पहिचानौ। या ते पावो पद निर्वानौ।१। चौरासी का चक्कर भाई। छूटि जाय आनन्द निधि पाई।२।