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२८८ ॥ श्री लक्ष्मण दास जी ॥


पद:-

तन मन लुभाय कान्ह ने सूरत को दिखा कर।

सुध बुध हरी सब तन की है मुरली को सुनाकर।

मोरों के पँख का मुकुट शिर पर सुघर धरे।

कानो में कुण्डल सोहैं द्युति जैसे भास्कर।

भूषण वसन सँवारे चमकै सुघर सबी।५।

चलते हैं चाल लचकि कै नूपुर को बजाकर।

नैनों में जान पड़ता जादू भरा है क्या।

करते निगाह तिरछी है अबरू को नचाकर।

दिल चाहता है अपने मैं सीने को बिदारूँ।

बैठारि करके आप को सिऔं फेरि बनाकर।१०।

बिन्ती मेरी है मोहन कलपाओ मत हमैं।

मिलिये दया के सागर सीने से लगाकर।

देखा कई दफे तुम्है या से बेचैन हूँ।

यह बानि आप छोड़ौ बैठो न लुकाकर।

त्यागूँगा प्राण जब मैं कहते हैं दास लछिमन।

चरणो में आप के हरि सूरत को लगाकर।१६।