४२० ॥ श्री झिनकू दास जी ॥
पद:-
अनमोल तन है नर का खोवै बृथा सो अहमक।
सुमिरन करै न हरि का बेकार करता बक बक।
सतगुरु से शब्द जानै धुनि ध्यान लय चढ़ै झक।
परकाश चमचमाता खुलता है कैसा फक फक।
बजते हैं बाजा अनहद सुनने से छूटै सक सक।५।
रंग रंग के कुम कुम से सन्मुख में झरते पक पक।
तत्वन के रूप दर्शैं क्या पांच रंग के लक लक।
क्या श्याम श्वेत पीले लाले हरे हैं तक तक।
षट चक्र सातौं नीरज कुंडलिनी दर्शै लक लक।
सुरमुनि के संग खेलो आनन्द लूटौ छक छक।१०।
सन्मुख में राम सीता बसु जाम निरखौ एक टक।
झिनकू कहैं तब मन से करि प्रेम लीजै यह हक।१२।