४५८ ॥ श्री ढोंगा दास जी ॥
पद:-
धिक्कार धिक धिक जन्म जग जिसने न हरि सुमिरन किया।
माता पिता परिवार को लै नर्क में बासा दिया।
छोड़ि कै अमृत अधम बनि बिषय बिष सेवन किया।
बुद्धि पै पत्थर पड़ि गये सत्संग में मन नहि दिया।
है चार दिन की ज़िन्दगी हर दम नहीं कोई जिया।५।
खेत कैसे जामिहै जब पड़ा नहि उसमें बिया।
भोजन मिलै जो नर्क में लखि तनक पै रोवैं जिया।
रक्त पीव औ मूत्र बिष्टा पकड़ि यम मुख भरि दिया।
चेतौ कहा मानौ अभी सतगुरु करौ पावो पिया।
ध्यान धुनि परकाश लय है पास पर परदा सिया।१०।
अभ्यास करु तन मन लगा निर्मल बनै तेरा हिया।
लखिये छटा फिर सामने हर दम रहैं रघुबर सिया।
द्वैत जियतै में मिटै हो श्वेत दाग़ न लागिया।
नाम की धुनि सुनौ निशि दिन प्रेम रस में पागिया।
अन्त में सोकेत को चढ़ि कै सिंहासन भागिया।
दास ढोंगा कहै फिरि भव दुख कभी नहि ब्यापिया।१६।