४६४ ॥ श्री फजीहत दास जी ॥
पद:-
करैं सुमिरन न जे हरि का उन्हैं यम मारैं कहि पाजी।
अभी तो झूठ कहि सुनि कै बनत हुशियार हौ काजी।
होय दरबार में पेशी करौ कैसे उन्हैं राजी।
गपोली भूलि सब जैहै लोह की होय किमि भाजी।
पिटाई फेरि तँह करिके पटकि लातन से दें गाँजी।५।
फेरि लै नर्क में डालैं नैन दोउ शीश ते राँजी।
खान हित मूत्र मल देवैं कहैं फटकारि कै खाजी।
भूलि पांडित्य सब जावै रहे चारों तरफ़ गाजी।
बिना सतगुरु न भव तरिहौ बनौ मुल्ला चहै हाजी।
कहा मानो करो सतगुरु जन्म फल पाय हो राजी।१०।
प्रेम तन मन से सच्चा करि कपट की बिलग करू काँजी।
सुरति जब शब्द पर लागै जाय मन संग में मांजी।
तार एक तार जब होवै कहां को जाय तब भाजी।
ध्यान धुनि लय औ परकाश लखों सिय राम छबि ताजी।
महा सुख में मगन हर दम पलक सकता नहीं भाँजी।
कहैं फजीहत चलो हरि पुर लेव सिंगार यह साजी।१६।