४७९ ॥ श्री खुरशैद जी ॥
ग़ज़ल:-
हरि को भजो लखो तब काहे करत हो झगड़ा।
मुरशिद से नाम बिधि को जानो करो तो रगड़ा।
सूरति शबद पै लागै मन होय तब तो लँगड़ा।
धुनि ध्यान नूर लय को पाकर के होहु तगड़ा।
थे शेर जाल में पड़ि अब बनि गये हो छगड़ा।५।
चेतो उठो तो भाई अब ही न कछु है बिगड़ा।
सुमिरन से सारे बन्धन कटि जात हैं न घबड़ा।
खुरशैद कह बचन मम मानै न तौन धिगँड़ा।८।