११ ॥ श्री जूझन शाह जी ॥
पद:-
सुखी गर तुमको है बनना करो मम बैन पर ख्याला।
कथा औ कीर्तन पूजन पाठ में दो लगा ताला।
ध्यान मुरशिद क करि बैठो गहो मति हाथ से माला।
जाप अजपा जपौ यारौं मिटै भव का कहर साला।
सुरति जब शब्द में पागै होय तब विहँग की चाला।५।
ध्यान धुनि नूर लै करतल मिटै विधि का लिखा भाला।
सामने राम सीता की छटा छवि हर समै आला।
समाये जौन सब में हैं करैं सब का वो प्रतिपाला।
ऐस आराम झूंठी में पड़े भूले हो क्यों लाला।
अन्त जम दूत गहि तुमको मारि कर देंगे बेहाला।१०।
जाय फिर नर्क में छोड़ैं वदन का खींच कर छाला।
पड़े कल्पों वहां भोगो बजाते हौ यहाँ गाला।
पाय नर तन न हरि सुमिरै उसी की दालि में काला।
देव मुनि आय दें दरशन फिरै मन का जहां माला।
प्रेम में चूर हो जावो करावो मुख को मति काला।
पास ही है कहैं जूझन जानि मुरशिद से लो हाला।१६।
पद:-
जिसे मुरशिद के कदमों की सदा रहती लगी लव है।
उसे आनन्द दिन पर दिन जियति ही तर गया भव है।
ध्यान धुनि नूर लै पावै नहीं शंका उसे जब है।
सामने राम सीता की छटा उसके बनी तब है।
कहैं जूझन जे नहिं मानै वही फिर जात रव रव है।
एक दिन जानते सब जन यह तन मेरा नहीं शव है।६।
पद:-
जिन्हैं मुरशिद के चरणों में प्रीति रहती एक रस है।
उन्हीं के राम सीता हर समै जानो रहत बस हैं।
ध्यान धुनि नूर लै पाकर रहे वे हर समै हँस हैं।
द्वैत परदा हटा उनका नहीं मालुम कौन कस हैं।
देव मुनि खेलते संघ में गये सब प्रेम में फंस हैं।
कहैं जूझन छोड़ि तन फिर कभी सकते नहीं खस हैं।६।
दोहा:-
जियत में जावै जूझि जो, सो मुरशिद का जान।
जूझन कह तब शिष्य का, यहाँ वहाँ सन्मान।१।
मुरशिद को अर्पन करै, तन मन प्रेम से जान।
जूझन कह तब शिष्य के, खुलि जाँय आँखी कान।२।