४३ ॥ श्री चौरंगी नाथ जी ॥
दोहा:-
पांच प्राण एक ठौर करि पंच गव्य करि देव।
पञ्चामृत हर दम चखौ, सन्मुख दर्शन लेव।१।
ध्यान धुनी परकाश हो, लै में जाव समाय।
चौरंगी कह छोड़ि तन, हरि ढिग बैठो जाय।२।
पद:-
त्रगुण की जब भगाई हो। तो हरि के ढिग समाई हो॥
ध्यान धुनि नूर पाई हो। तो फिर लै में समाई हो॥
नागिनी की जगाई हो। घूमि सब लोक आई हो॥
चक्र षट बेधि जाई हो। कमल सातौं फुलाई हो॥
बजै अनहद बधाई हो। सुनै तन मन जुड़ाई हो।५।
देव मुनि संग खेलाई हो। हर्षि उर में लगाई हो॥
विहंग मारग से धाई हो। उसे जग से रिहाई हो॥
दीनता प्रेम आई हो। रूप सन्मुख में छाई हो॥
मार्ग मुरशिद सिखाई हो। सो इस ढर्रे पै जाई हो।
बड़ी भारी कमाई हो। सो निज को चीन्ह पाई हो।१०।
नहीं तो नर्क जाई हो। परै हर दम पिटाई हो।
हाय की धुनि मचाई हो। कहां जाकर लुकाई हो।
जो हमने पद सुनाई हो। मान लो बहिनो भाई हो।
नही नेकों सुनाई हो। खाल तन की उड़ाई हो।
जो चेला कर बकाई हो। न कल पल एक पाई हो।
छोड़ि करके ठगाई हो। भजो आनन्द दाई हो।१६।