५० ॥ श्री मुनासिव शाह जी ॥
पद:-
पवर्गी जीव किमि पावेंगे निज अपवर्ग का रस्ता।
बिना मुरशिद के चकरावें बँधा उनका पड़ा बस्ता।
चारि दिन की जिन्दगी है खायगा काल जिमि खस्ता।
स्वांस बेकार जो खोता फिरे मनके कहे हंसता।
वही घर घर में जा रोता ठगों के संग में फंसता।५।
प्रेम तन मन से करि यारों जो हरि के नाम में लसता।
ध्यान धुनि नूर लय पाकर कहे क्या रास्ता सस्ता।
सामने राम सीता की छटा श्रृंगार छवि लखता।८।
दोहा:-
अजा पकड़ि के शेर को गटकि गई मुसिक्याय।
समुझे बिन छूटे नहीं तन मन ते अकुलाय।१।
मुरशिद करके गहे जब राम नाम सुखदाय।
तब निर्भय निर्बैर हो कहै मुनासिव गाय।२।