७० ॥ श्री कुरेसी जी ॥
पद:-
वचन से कर्म से मन से प्रेम तन में हो मुरशिद का।
फते यावी वही पावै रहै कोई नहीं चसका।
ध्यान धुनि नूर लै जानै जहां सुधि बुधि नहीं हिसका।
सामने राम सीता हों कटै भव जाल सब विष का।
देव मुनि संघ में खेलैं पता पावै नही रिसि का।५।
छोड़ि तन हो रवाना जब फेरि नीचे नहीं खिसका।
जहां दोनों में फहरैगा पताका चारों जुग उसका।
कुरेसी कह करो सुमिरन सुरति धरि शब्द पर हरि का।८।
पद:-
मुरशिद से हिकमत सीख लो किसमत क लिक्खा दूर हो।
परदा उलटि पहिचान लो खुद आप हरि जां पूर हो।
नाम का हर वक्त बजता एक रस क्या तूर हो।
ध्यान लै हो रूप दर्शै चमचमाता नूर हो।
अनहद सुनो सुर मुनि मिलैं तन मन से प्रेम में चूर हो।
कहते कुरेसी क्यों बने बैठे हो काहिल कूर हो।६।