७१ ॥ श्री अरुण जी ॥
पद:-
अबला भूषण सब सजै बसन न पहिरै अंग।
वाकी सोभा नेक नहि सबै बात बेढंग।
ऐसे हरि सुमिरन बिना चढ़ै न तन मन रंग।
अहंकार गांसे रहै जो है कठिन भुजंग।
सतगुरु करि मारग गहौ दीन बनो हरि संग।
ध्यान धुनी परकाश लै मिलै फते हो जंग।
हरि से जीवन बिलग करि मोह ने कीन अपंग।
अरुण कहैं जाने बिना हर दम रहते तंग।८।