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९३ ॥ श्री चेत सिंह जी ॥


पद:-

पचै मन क्यों बुराई में। महा दुख हरि दुराई में।

धर्म धन पर लुगाई में। नास करता सुताई में।

ये तन जाता भुकाई में। बना कूकुर मुताई में।

गरभ पट्टा लिखाई में। किया वादा भुलाई में।

करै देरी अदाई में। पड़ा अहमक थुकाई में।५।

बैठ अब निज टुकाई में। संभल जा तू सफाई में।

दीन बनि ले गदाई में। न हो देरी मिलाई में।

सुक्ख मिलता समाई में। अन्त जाता भलाई में।

सदा रहता रिहाई में। जहां से है विदाई में।

नर्क होता ठगाई में। व्रथा स्वांसा गंवाई में।१०।

पड़ैगा जो बड़ाई में। पकड़ि जावै चुकाई में।

पड़ैगा तन लुटाई में। न दें पल कल पिटाई में।१२।