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९४ ॥ श्री जसवंत सिंह जी ॥


पद:-

मन तो नाटक पास किये है करता छिन छिन अजब तमाशे।

विषय वासना के लै कापे कपट लपेटे लाशे।

जीव भाजि कै कहां को जावै चोर चहुँ दिशि गांशे।

माया वट पारन की माता द्वैत डोरि लै फांशे।

या विधि पकड़ि पकड़ि लै जावै जाय नर्क में ठांसे।५।

पल भरि कल मिलती नहिं वहं पर कीड़ा सब तन चांसे।

सतगुरु करि सुमिरन विधि लीजै तन है वारि बतासे।

धुनि ध्यान प्रकाश समाधि मिलै सिय राम सामने भासे।

सुर मुनि ते नित होय बतकही जैसे पितु औ मां से।

अनहद नाद सुनो घट बाजै घटै न तोले माशे।१०।

कुण्डलिनी षट चक्कर जानो सातों कमल विकाशे।

कह जसवन्त सिंह मन मिलिगो कौन तुम्हैं अब सांसे।१२।


दोहा:-

सांसति छूटी मन मिलो खांसि सकै नहिं चोर।

सतगुरु ने किरपा करी, जियति जीत भइ मोर॥


सोरठा:-

जसवन्त सिंह कह गाय, राम नाम को जानिये।

सुनिये बहिनो भाय, सत्य वस्तु सुख खानिये॥