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९५ ॥ श्री रणधीर सिंह जी ॥


पद:-

मन बिसयों का ऐ मे जिनका बल वीर्य को फिरते गारे हैं।

तन अंदर कारिष कीन जमा ऊपर ते खूब संवारे हैं।

यहि कारन अन्धे बहिरे भे लंगड़े लूले मिलि मारे हैं।

काबू मन जौन नहीं करते वै हर दम रहत दुखारे हैं।

जब दीन बनै गुरु ज्ञान मिलै तब तो सब चोर किनारे हैं।५।

जब द्वैत मिटी तब फौत कहां सन्मुख प्रिय वंशी वारे हैं।

धुनि ध्यान प्रकाश समाधि को लो सुर मुनि संग खेल प्रचारे हैं।

अनहद घट में बाजै सुनिये क्या संख सितार नगारे हैं।

कुण्डलिनी सीधी ह्वै चलती सुखमन में अजब बहारे हैं।

षट चक्कर सोधन ह्वै जावैं सातौं क्या कमल सुखारे हैं।१०।

जिन सूरति शब्द पै दीन लगा जियतै भव लात से टारे हैं।

रणधीर कहैं हैं कूर वही जो बैठे हिम्मत हारे हैं।१२।