९६ ॥ श्री बलवन्त सिंह जी ॥
पद:-
व्याख्यान से भजन से फर्क बड़ा यह बात समुझने वाली जी।
पढ़ि सुनि कंठ किया कहेते क्या ज़वान तूती पाली जी।
बड़ी भाग्य से सत पद हो हासिल सतगुरु के हाथ में ताली जी।
उन्हीं के पास में है यह धन जिन वीनी तन मन डाली जी।
जोती कसि प्रेम कि दीन लगा नहि इधर उधर फिर हाली जी।५।
परि पूरन नित्य भरी रहती बाटे पर होत न खाली जी।
धुनि ध्यान प्रकाश समाधि मिली जियतै छूटी भव जाली जी।
छवि लखि लखि के छकिये अमृत सन्मुख में प्रिय वनमाली जी।
सुर मुनि सब आय के दें दर्शन अनहद की तान निराली जी।
खिलि जांय कमल सातौं सुंदर षट चक्कर वेधि संभाली जी।१०।
कुंडलिनी जागि के हो सीधी जो उमा मातु की आली जी।
स्वांसा सुखमन मंगल दायक जो विहंग मार्ग लै ढाली जी।
सूरति से शब्द को ख्याल करो जो कर्मन की गति टाली जी।
नहिं मानो अगर यारों कहना जम आय अन्त तन चाली जी।
क्या रूप भयानक अस्त्र लिये जिन में अति पैनी वाली जी।
वलवंत सिंह कहैं सार वचन मन मूसर दुनियां गाली जी।१६।