९७ ॥ श्री विद्याधर गन्धर्व जी ॥
चौपाई:-
परा चली पैसंती पासा। दोनों मिलि कर भई हुलासा॥
फिरि मद्धिमा के ग्रह दोउ आई। तीनो मिली लिपटि उर लाई॥
तीनो चलीं वैखरी के घर। पहुँच गईं मिलि लीन परस पर॥
चारो मिलीं एक में ऐसे। तेल कि धार बंधत है जैसे॥
चलि सुषमन में जाय समानी। मिली तहाँ पर ब्रह्म की बानी।५।
लीन मिलाय एक में प्यारी। ध्यान प्रकाश समाधि को धारी॥
या विधि सबै एक ह्वै जावैं। सतगुरु बिन कोइ भेद न पावैं॥
राम सिया सन्मुख में राजैं। सुर मुनि दर्शन दें अरु गाजैं।८।
दोहा:-
मन एकाग्र कीन्हें बिना सुखमन होय न श्वांस।
या से साधन तो करो, सबै पदारथ पास॥
सोरठा:-
विद्याधर मम नाम, सतगुरु रामानन्द जी।
रोम रोम हो नाम सन्मुख आनन्द कन्द जी॥
चौपाई:-
प्रथम धुनी पर सूरति दीजै। चारों खींचि एक में कीजै।१।
चारों हैं या के आधीना। सब में बड़ी एही परवीना।२।
रं रं एक तार रहै जारी। सब में व्यापक सब सुखकारी।३।
या को जानि लेय जो कोई। आवागमन से छूटै सोई।४।