१२० ॥ श्री लाला जै दयाल जी ॥
पद:-
हरि मोहि ठगवा बहुत सतावत।
कपट दंभ पाखण्ड मसखरी कूट औ झूँठ सिखावत।
पर धन पर दारा रत आमिष पर मन को दौरावत।
राति दिवस का पाठ यही है और न उन्हैं स्वहावत।
पल भरि चैन मिलत नहिं इन से ऐसी ररि मचावत।५।
जैसे बाजीगर लै मरकट साज बजाय नचावत।
खेल में भंग होय जस नेकों तन पर चपत लगावत।
वैसे हाल जानिये स्वामी मैं यह सत्य सुनावत।
बिन सतगुरु के जीव तरै किमि बार बार चकरावत।
भेद जानि कै निबुकि जाय चट फेरि न जग में आवत।१०।
ध्यान धुनी परकाश दशा लै पाय हिये हर्षावत।
सन्मुख आय देव मुनि दर्शैं विजय की ढोल बजावत।१२।