१२१ ॥ श्री गोरी जान जी ॥
पद:-
हरि मोहिं चोर सिखावत चोरी।
हैं उस्ताद काम में अपने शिष्य करत बरजोरी।
बहुत मंत्र सब मिलि बतलावैं तन मन रंग में बोरी।
छिन ही में कंठस्थ होय सब ऐसी लागै डोरी।
या से जीव पड़ा चकरावै पाप से भरि गइ झोरी।५।
सतगुरु देहु मिलाय दयानिधि देवैं बंदी छोरी।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि सन्मुख मूरति तोरी।
अनहद सुनो देव मुनि दर्शैं तब मुद मंगल होरी।
जियतै में सब करतल होवै भर्म क भाँड़ा फोरी।
अंत समय तव धाम लेहुँ चलि बैठो फिरि एक ठोरी।१०।
यह मम विनय दीन दुःख भंजन मैं गँवार बुधि थोरी।
अब की बेर नाथ अपनावो बलि बलि जावै गोरी।१२।