१५४ ॥ श्री लियाकत अली जी ॥
पद:-
भजन हरि का नहीं करते छुटै किमि पाप का गठ्ठा।
करै मुरशिद मिलै तब तो छाटने हित कड़ा कठ्ठा।
मसाला सब तेरे पासै ध्यान परकाश लय भठ्ठा।
चुराले जितना जी चाहै न खाना नेक अब हट्ठा।
मिटै गीदड़ पना सारा फेरि हो शेर का पट्ठा।५।
नहीं तो अन्त पछितैहै अमी तजि चाखता मट्ठा।
आय जम दूत जब घेरैं देंय मुख पर तेरे चट्ठा।
लियाकत अली कह दोज़ख में दाबैं घेंच धरि लट्ठा।८।