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१७९ ॥ श्री दुन्दुभी गिरि जी ॥


पद:-

चतुरानन कहैं सुनो शिवा जी आप के पति से हम हैं हारे।

जन्म दरिद्र लिखैं हम जिनको तिनको वै सब साज सँवारे।

महा पातकी लिखैं जिन्हैं हम तिनको वै ज्ञानी करि डारें।

नर्क वास जिनको हम लिखते तिनको वै बैकुण्ठ बिठारें।

पुत्रहीन जिनको हम लिखते तिनको दें वै बालक प्यारे।५।

लिखत लिखत हम लिखैं कहाँ तक कठिन कुअंक मिटावत सारे।

जे जन भजन करैं नित उनका ते हमरे हैं लोक से न्यारे।

आदि वैष्णव कहैं देव मुनि राम नाम के जानन हारे

राम सिया कि भक्ति देत हैं तन मन प्रेम जो उन पर वारे।

ध्यान धुनी परकाश दशा लय सन्मुख जोड़ी जुगुल निहारे।१०।

अनहद बाजा घट में बाजै सुनि सुनि मस्त रहे मन मारे।

चारिउ मुक्ति खड़ी कर जोरे सेवा हेत दिव्य तन धारे।

हम सब सुर मुनि संग में खेलैं बोलैं भक्त की जय जय कारे।

शान्ति शील सन्तोष दीनता सरधा दाया कहत दुलारे।

छिमा सत्य जप तप शुभ सुख औ ज्ञान सदा रहते रखवारे।

युग औ लोक वेद शारद अहि वरणत यश नहिं पावत पारे।१६।