१८१ ॥ श्री गनेशी कोरी जी ॥
पद:-
मन क्यों खेलत पाप कि होरी।
धर्म की पत्नी त्यागन करि के परकी ताकत मोरी।
नर्क लेवारा में नित लोटत निज मति कीन्हे सोरी।
ठीक ठेकान मिलत नहिं कबहूँ तहूँ न छूटत चोरी।
सतगुरु करि हम राम मन्त्र लै बाँधव तोहिं बरजोरी।५।
शब्द क चाबुक मारव हरदम सुधरै अक्किल तोरी।
सूरति के संघ फेरि लगाय के देहु तुझे रँग बोरी।
ध्यान धुनी परकाश दशालय पाय जियत भव छोरी।
सन्मुख राम श्याम की झाँकी संग सिया प्रिय गोरी।
सुर मुनि आशिर्वाद देंय सब जय जय कार भयोरी।१०।
जो या विधि को जानि जाय सो भर्म का भांड़ा फोरी।
अन्त समय साकेत विराजै कहैं गनेशी कोरी।१२।