२७९ ॥ श्री मकुवा कंजड़ जी ॥
पद:-
हरि लछिमन मुनि की यज्ञ संभारयो सो यज्ञ संभारयो।
चौपाई:-
राम लखन अति कोमल गाता। दशरथ अवध नरेश के ताता।
लै निषंग धनु शर दोउ भ्राता। मुनि संग चले मगन बतलाता।
कानन में जस कीन प्रवेशा। लख्यौ ताड़ुका को बड़ भेषा।
दौरी रघुनायक की ओरी। छिन में अहंकार प्रभु तोरी।
एकै शर मस्तक पर मारा। लागत निकसि गयो वहि पारा।५।
गिरी राक्षसी छूटे प्राना। दिव्य रूप ह्वै बैठि विमाना।
राम नाम सुमिरत चल दीन्ही। जाय विष्णु पुर आसन लीन्ही।
पहुँचि गये जब मुनि के धामा। ऋषि मुनि को तहँ कीन प्रणामा।
कह्यौ करौ मख तन मन लाई। हम रक्षक रहिहैं दोउ भाई।
वचन सुनत ऋषि मुनि हर्षाये। मख के सब पदार्थ लै आये।१०।
यज्ञ करन लागे सब ऋषि मुनि। घृत साकल्य को छोड़त पुनि पुनि।
राम लखन धनु शायक लीन्हें। निज निज पारि पै खड़े प्रवीने।
पश्चिम दिशि पूरब मुख कीन्हे। ठाढ़े रघुनायक मनु दीन्हे।
पूरव दिशि पश्चिम मुख ठाढ़े। लछिमन वीर वचन के गाढ़े ।
चहुँ दिशि ऊपर दृष्टि चलावैं। देखैं कौन कहाँ ते आवैं।१५।
स्वाहा की धुनि व्यापी कानन। सुर निरखैं नभ ते चढ़ि यानन।
सुनि मारीच असुर लै धावा। रघुनायक के ढिग चलि आवा।१७।
थोथा बाण राम एक फेंका। सौ योयन गा देर न नेका।१८।
सात दिवस बीते तब चेता। बोला धनि धनि कृपा निकेता।
चला सुबाहु राम पर कैसे। नभ ते गाज गिरत है जैसे।२०।
अगिन बाण ते प्रभु तेहि मारा। लागत ही जरि कै भा छारा।
दिव्य शरीर पाय चढ़ि याना। चल्यौ कहत जय कृपा निधाना।
विष्णु धाम में पहुँच्यो जाई। आसन तहाँ मिल्यौ सुखदाई।
लखन राक्षस दल सब मारा। सुर मुनि कीन्ह्यौ जय जय कारा।
मारे लखन निशाचर जेते। गे विमान चढ़ि हरि पुर तेते।२५।
फूलमाल नभ ते बरसायो। सुर मुनि निज निज साज बजायो।
कछु दिन रहे तहाँ दोउ भाई। ऋषि मुनि के तन सुख उपजाई।
विश्वामित्र सुखी अति भयऊ। राम ब्रह्म कहँ विद्या दयऊ।
भोजन जल की रुचि नहिं जानो। बल अपार तन में भा मानो।
छवि सिंगार छटा की शोभा। बरनि सकै जग में अस को भा।३०।
सो विद्या प्रभु अवध में आई। भरथ लखन रिपुहनहिं बताई।
मकुवा कह मकान तन भाई। खोजै तेहि सब परै दिखाई।३२।