३८४ ॥ श्री रतन दास जी ॥
पद:-
सतगुरु करो लखौ सुनो घट ही में कीर्तन।
सुर मुनि सभी हैं कर रहें कैसे मृदुल वचन।
शोभा श्रंगार क्या कहूँ कोमल अजब वदन।
एक बार जाय जो वहां लेते लोभाय मन।
तहां बीच में विराजैं प्रिय श्याम जग के धन।५।
फिर आस पास गोपी ग्वाल नाच में मगन।
धुनि ध्यान नूर लय मिलै फिर अन्त निज वतन।
गुनि मानो भाई बहिनों कहत जो रतन।८।