५१५ ॥ श्री लोलुप शाह जी ॥
पद:-
सिया राधे रमा लखौ सोहतीं।
सतगुर करि जप की विधि जानो भक्तन के मुख जोहतीं।
चुनि चुनि फूल सुगन्धित लावैं हार प्रेम से पोहतीं।
भक्तन को फिर जाय पिन्हावैं सुधि बुधि सारी मोहतीं।
मचलैं भक्त मनावैं हंसि हंसि नेको नहिं मन रोहतीं।५।
हैं सरवज्ञ करैं क्या बातैं हम सब भक्तन टोहतीं।
प्राण समान भक्त हैं मेरे दुख देखैं तब कोहतीं।
भोग भोगाय पास में लेवैं लोलुप कह अस चोहतीं।८।
सोरठा:-
कन्द मूल फल वारि भोजन रुचि अनकूल जो।
लावैं मातु सम्हारि भक्तन हित लोलुप कहैं॥