५५४ ॥ श्री कुकरूँ कूँ शाह जी ॥
पद:-
निज को निज में नहि पहिचाना, धरा क्यों सन्त का वाना।
सतगुरु मिलैं सयाना, खुलि जायं चश्म काना।
लय नूर धुनि औ ध्याना, अनहद की सुनिये ताना।
अमृत भी कर लो पाना, सुर मुनि के संग हो खाना।
नागिन को जागि जाना, षट चक्र को घुमाना।५।
सातों कमल फुलाना, दोउ स्वर महक उड़ाना।
सिय राम छवि महाना, सन्मुख में आय छाना।
कर्मों को हो जलाना, तन तजि मिलै ठिकाना।८।
दोहा:-
कुकरूँ कूँ कह हरि भजौ मानौ बचन हमार।
नाहीं तो तन त्यागि के परिहौ नर्क मंझार।१।