५६४ ॥ श्री प्रकाशानन्द जी ॥
पद:-
विद्या बिनोद में पड़ि जिसने जन्म गँवाया।
उसकी तो नाव डूबी नहिं ठीक ठौर पाया।
सतगुरु किया न तन मन हरि नाम रंग पै लाया।
ध्यान धुनी नूर लय में जाकर नहीं समाया।
सुर मुनि के कर से कर गहि उर में नहीं लगाया।५।
अमृत पिया न अनहद की तान में लुभाया।
प्रिय श्याम की छटा छबि निज सामने न छाया।
करि कीर्तन जनों को प्रेमी नहीं बनाया।
दया शान्ति दीनता को उर में नहीं बसाया।
इन्द्रिन को स्वल्प भोजन दै कर नहीं बचाया।१०।
दुख सुख को मानि कर सम असुरन नहीं दबाया।
परकाशानन्द कह सो कपड़े वृथा रंगाया।१२।