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८१२ ॥ श्री भोज जी ॥


दोहा:-

विद्वानन की कदर हम, जग मे कछु कर लीन।

यथा सक्ति जो कुछ बन्यो, सो धन उनको दीन।१।

परजा को पालन किहेन, राजनीति से जान।

जिनके पुन्य प्रताप से, मोको सुःख महान।२।

अन्त समय हरि पुर गयन, चढ़ि के सुन्दर यान।

कहैं भोज बैठक मिली, बदल्यो दूसर यान।३।