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८२७ ॥ श्री हीरा दास जी ॥


पद:-

चाल चितवन कन्हैया कि जग मोहैं।

मोर मुकुट कुण्डल मकरा कृत केशरि तिलक भाल सोहैं।

भूषन बसन पगन नूपुर धुनि बरनि सकै अस कवि को हैं।

मन्द हंसनि बोलन मृदु कोमल तन मन में सुनते पो हैं।

बाम भाग में राधे शोभित गले बांह मुख छबि जोहैं।५।

टेढ़े खड़े तीनि बल खाये मुरली अधर धरे तो हैं।

सतगुरु करो लखो नित झांकी परि पूरन सब में जो हैं।

हीरा दास कहैं हरि सुमिरौ अन्त में सो हरि पुर सोहै।८।