८४४ ॥ श्री निकम्मा जी ॥
पद:-
आबे रवां के सम हो धुलि जाय तन मन भाई।
मुरशिद करै औ नम हो सो हरि हिये में पाई।
धुनि रोम रोम होगी हर शय से भनभनाई।
लय ध्यान नूर पाकर मस्ती में बड़ बड़ाई।
सिय राम हर दम सन्मुख लखि लखि के मुस्किराई।
कहती निकम्मा तब वह फिर निज वतन को जाई।६।
शेर:-
बरखुरदार नूर चश्म राहत जान हरि के हो।
तन मन व प्रेम से अगर कुरबान हरि पै हो।१।
मुरशिद कि खिदमत कर लो दिल जान भर के हो।
कहति निकम्मा चेतो महिमान जग के हो।२।