११ ॥ श्री सनातन जी ॥
पद:-
जगत से पार होने हित यह तन हरि ने बनाया है।
संग असुरन कि क्या सेना परिक्षा हित लगाया है।
माल अपना बचा ले जो वही फिर पार पाया है।
नहीं तो अन्त हो दोजक़ हाय की धुनि मचाया है।४।
सुरति औ शब्द का मारग जिसे सतगुरु बताया है।
छटा प्रिय श्याम की हरदम वही लखि लखि लुभाया है।
ध्यान धुनि नूर लय में जाय कर सुधि बुधि भुलाया है।
सनातन कह अन्त तन तजि के हरि पुर बास पाया है।८।