६८ ॥ श्री सिखावन शाह जी ॥
पद:-
अलिफ़ बे पे ए बी सी डी लिया पढ़ि बन गये साहब।
किया सतगुरु न पहिचाना बसे सब में जो हैं साहब।
कोट बास्कट और सूटर कमीचैं तन पहिन साहब।
बूट जूता और मोजा कसै पतलून को साहब।
कालर मफ़लर औ नकटाई हैट शिर धर लिया साहब।५।
फ्रेंच दाढ़ी कोई बनवा कोई बिलकुल सफ़ा साहब।
कोई अबलक मुड़ाये हैं कोई सब कुटकरा साहब।
कोई दोनो तरफ़ कटवा बीच में ली रखा साहब।
घड़ी कोइ जेब में डाले कोई कर में लगा साहब।
जला सिगरेट दबा मुख में उठा छाता छड़ी साहब।१०।
चले मदमस्त ह्वै घर से टहलने के लिये साहब।
मिलै जहं मेल का कोई कहैं गुड मारनिंग साहब।
मिला कर हाथ फिर दोनों लगा झीटा हंसै साहब।
खड़े क्या कर रहै गिट पिट हैट बग़ली दबा साहब।
बना छप्पर है क्या शिर पर तेल बढ़िया से तर साहब।१५।
मांग उसमे निकाली क्या कसर सेंदुर कि है साहब।
जाति मालुम नहीं होती कौन किस कुल के हैं साहब।
धर्म निज निज को त्यागन कर दिया धन हेतु बनि साहब।
एक सांची बीस झूँठी मिलाकर बोलते साहब।
कमा कर धन धरा घर में खुशी सब घर के हैं साहब।२०।
खाना पीना गंदा खाते राक्षसी जौन हैं साहब।
दया की दे तिलांजुलि दी पाप से लदि गये साहब।
नारि अपनी न भाती है करैं वैश्या गमन साहब।
खांय उस धन को सब घर के अन्त दोज़ख पड़ैं साहब।
हाय रे हाय चिल्लावैं पड़े कल्पौं सड़ैं साहब।२५।
प्रथम धन खर्च करि घर का कपट विद्या पढ़ैं साहब।
फेरि अब बुद्धि किमि सुधरै उसी रंग पर चढ़े साहब।
बहुत कम जीव ऐसे हैं जो अपने धर्म पर साहब।
उन्हैं हम धन्य कहते हैं होंय जग से रिहा साहब।
रहैं जब तक जगत में वै न हो कछु दुख उन्हैं साहब।३०।
सदा हरि नाम को सुमिरैं होंय दर्शन उन्हैं साहब।
ध्यान धुनि नूर लै पावो सिखावन शाह कहैं साहब।३२।